जम्मू ,24 Mar : कभी संसदीय चुनावों (Parliamentary Elections) को लेकर लोगों में मतदान करने से लेकर चुनाव लड़ने तक को लेकर भारी उत्साह होता था। अब मतदान को लेकर तो उत्साह पहले से भी अधिक है लेकिन चुनाव लड़ने को लेकर उम्मीदवारों की संख्या लगातार कम हो रही है।
विशेषतौर पर निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या लगातार कम हो रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि संसदीय चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर लड़ना आसान नहीं। खर्च बढ़ने से भी उम्मीदवार कम हुए हैं।
जम्मू-कश्मीर (Jammu Kashmir News) में पहले चरण में 19 अप्रैल (Ist Phase Voting) को मतदान होना है। अगर इसी सीट की बात करें तो दो दशक पहले वर्ष 2004 के संसदीय चुनावों में इस सीट से 21 उम्मीदवारों ने अपना भाग्य आजमाया था। इनमें आठ निर्दलीय उम्मीदवार थे जबकि कांग्रेस (Congress), भाजपा (BJP News) और नेशनल कांफ्रेंस (National Conference) सहित कुल 13 राजनीतिक दलों ने अपने उम्मीदवार उतारे थे।
वर्ष 2009 के चुनावों में यह संख्या कम हुई और 14 उम्मीदवार ही रह गए। इनमें चार निर्दलीय उम्मीदवार थे। जबकि कांग्रेस और भाजपा के अतिरिक्त पीडीपी (PDP), पैंथर्स पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, सीपीआई, बैकवर्ड क्लासिस डेमोक्रेटिक पार्टी जेएंडके, भारतीय बहुजन पार्टी, ऑल इंडिया फारवर्ड ब्लॉक और राष्ट्रीय क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार थे।
वर्ष 2014 के चुनावों में उम्मीदवारों की संख्या और कम हो गई और आठ उम्मीदवार ही चुनाव मैदान में रह गए। इनमें तीन निर्दलीय उम्मीदवार थे जबकि कांग्रेस, भाजपा, पीडीपी, पैंथर्स पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने चुनाव लड़ा। वर्ष 2019 के चुनावों में इस सीट से पांच ही उम्मीदवार थे जिनमें एक भी निर्दलीय उम्मीदवार नहीं था।
जम्मू-रियासी संसदीय क्षेत्र जो कि पहले जम्मू-राजौरी से जाना जाता था, इसमें भी निर्दलीय उम्मीदवार अब बहुत कम चुनाव लड़ते हैं। वर्ष 2004 में इस सीट से कुल 26 उम्मीदवारों ने अपना भाग्य आजमाया था। इसमें 15 निर्दलीय उम्मीदवार थे। हालांकि पंद्रह में से 14 उम्मीदवारों को 100-100 वोट भी नहीं मिल पाए थे लेकिन चुनाव लड़ने को लेकर उनमें उत्साह देखा जाता था।
वर्ष 2009 के चुनावों में उम्मीदवारों में कुछ कमी आई और 21 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा। बावजूद इसके 11 निर्दलीय उम्मीदवार थे। इन उम्मीदवारों में से किसी को भी एक प्रतिशत वोट भी हासिल नहीं हुआ। मगर इसके निर्दलीय तौर पर चुनाव लड़ने वालों का रूझान कम होता चला गया।
वर्ष 2014 के चुनावों में पहली बार जम्मू-राजौरी से सिर्फ पांच ही उम्मीदवार मैदान में थे और कोई भी निर्दलीय उम्मीदवार नहीं था। वर्ष 2019 के संसदीय चुनावों में भी स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं आया। सिर्फ छह ही उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था। इनमें सिर्फ एक ही निर्दलीय उम्मीदवार थे।
अगर जम्मू संभाग के दोनो संसदीय क्षेत्रों में देखें तो वर्ष 2019 के संसदीय चुनावों में सिर्फ 11 उम्मीदवार थे और इनमें से एक ही निर्दलीय उम्मीदवार था। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि लोकतंत्र के इस सबसे बड़े पर्व में अब मतदाताओं में भी तो उत्साह है लेकिन उम्मीदवार तभी चुनाव लड़ना पसंद करते हैं जब उन्हें किसी राजनीतिक दल से सीट मिले।
छोटे राजनीतिक दल भी नहीं आते नजर
पिछले दो बार के संसदीय चुनावों में जम्मू संभाग की दोनो सीटों पर अगर नजर दौड़ाएं तो छोटे राजनीतिक दलों की भूमिका भी गायब है। सीपीआई, बैकवर्ड क्लासिस डेमोक्रेटिक पार्टी जेएंडके, भारतीय बहुजन पार्टी, आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक, राष्ट्रीय क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी , समाजवादी पार्टी, लोकजन शक्ति पार्टी, सेक्यूलर पार्टी आफ इंडिया, जनता दल सेक्यूलर जैसे दल भी अब यहां पर अपने उम्मीदवार कम ही उतारते हैं।
चुनाव लड़ना आसान नहीं
चुनावों पर हर बार अपनी नजर रखने वाले एडवोकेट धीरज चौधरी का कहना है कि वर्ष 2014 के बाद चुनावी समीकरण बदले हैं। अब संसदीय चुनाव राष्ट्रीय दलों के आसपास सिमट कर रह गए हैं। जम्मू संभाग ही नहीं अन्य जगहों पर भी ऐसा देखने को मिला है। छोटे दलों पर मतदाता संसदीय चुनावों में भरोसा कम करते हैं।
वहीं चुनाव लड़ने के लिए आपके पास कार्यकर्ता, धन हर चीज चाहिए। निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ना आसान नहीं है। यह तभी संभव है जब समाज के एक वर्ग का आपको समर्थन हो। जम्मू संभाग की भौगोलिक स्थिति भी ऐसी है कि यहां पर हर जगह पहुंच पाना ही आसान नहीं है। इस कारण भी निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या कम हो रही है।